सच है कि हमने कोई कल नहीं देखा, पर कल लिखते हैं।
कुछ शायर जिन्हें इल्म नहीं रदीफ काफिया का, गजल लिखतें हैं।
कभी ढलती शमा, कभी चढ़ता सूरज तो कभी कवल लिखते हैं।
शक मत करना कि हम अभी किशोर हैं, हम जीवन का हर पल लिखते हैं।
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
वो थामने भी नहीं देते, मुझसे छोड़ा भी नहीं जाता
वो जुड़ने भी नहीं देते, मुझसे तोड़ा भी नहीं जाता
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
मेरी जिंदगी की उम्र क्या है ये मुझे पता तो नहीं, मैं मेरी गजल के मतलों में जिऊंगा कयामत के बाद तक।
कभी फरमाइशों के गौर में, महफ़िल में, शाम में,
कभी हजरात की वाह वाह से, उनकी इरशाद तक।
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
वो खुद को तलाशता हुआ, भीड़ में खोया तो है।
पर जाने कितनों की नजर में है।
रात गई, सहर हुई, अब तो दिन ढलने को है।
पर वो अब भी उसी आशमा, उसी शज़र में है।
वो खुद से कहां गुमा, गुमा नहीं उसे।
चला तो दूर तक, पर अब भी रहगुझर में है।
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
वो और हैं जो जागीर पर नजर रखते हैं,
हम और हैं, न जागीर, न जर रखते हैं।
शहर के बीच मुबारक उन्हें लाखों के महल,
भरे सैलाब में हम साख का घर रखते हैं।
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
कितनों ने अपने दर पे संगमरमर लगा रखा है, कोई बताओ इनको, की ज़मीं पे कदम फिसलते कम हैं।
मंदर में सज़ा रक्खे हैं पत्थर के बुत, बुत पत्थर के रोशनी देने को, मोम से पिघलते कम हैं।
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
खुशनशिबी से मिली हर खुशी को अब खो दिया करेंगे,
गर किसी ने पूछा "क्यों", तो जबाब में बस रो दिया करेंगे.
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
गर किसी ने पूछा "क्यों", तो जबाब में बस रो दिया करेंगे.
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
ना तेरा हि घर है, ना मेरा हि घर है..
मिले हैं जहां, ये तो बस रहगुज़र है..
खुदा ने बनाई है, दुनियां सिफ़र सी..
मिलेंगे तुम्हें फिर, यही लफ्ज़ पर है..
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
ना वो तूफां रहे, ना वो कश्ती रही।
ना वो वीराने रहे, ना वो बस्ती रही।।
उस क़यामत को गुज़रे कुछ वक्त गया।
जब कोई रोता रहा, और वो हंसती रही।
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
कुछ ख्वाब,
कुछ फसाने,
और ये जमाना,
चलो छोड़ो भी, जाने दो,
क्या सुनाना....
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
कोई धुंधला उजाला सा था एक तरफ, और चमकती सी एक रोशनी स्याह थी,
नूर से उन लबों की तो बात क्या कहूं, पर कहीं दिल के अंदर दबी आह थी।
वो वक्त, वो पल, वो दिन प्यार के अब भी मेरी सांसों में जिंदा हैं कही,
आसमा साफ है दूर तक, नजर आता कुछ नही, पर तड़पता हुआ एक परिंदा है कहीं।
ज़र्रे ज़र्रे में एक दर्द जैसा है, जो भी हो तेरा अहसास तो देता है,
कोई सुने या ना, ये बात और है, तेरे नाम पे, बिना नाम लिए कोई आवाज़ तो देता है।
-:रिशु कुमार दुबे "किशोर":-
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